प्रयागराज, 07 फरवरी (हि.स.)। इलाहाबाद हाईकोर्ट में बुधवार को ज्ञानवापी तहखाने में मिले पूजा के अधिकार को जहां मंदिर पक्ष ने सही बताया। वहीं, मस्जिद पक्ष ने इस मामले में मंदिर पक्ष और यूपी सरकार की आपसी सांठ-गांठ होने का आरोप लगाया। जबकि, सुनवाई कर रही न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल की पीठ ने दोनों पक्षों से अपना दावा साबित करने को कहा।
अंजुमने इंतजामियां कमेटी की ओर से दाखिल याचिका पर तकरीबन सवा दो घंटे तक चली सुनवाई में मंदिर पक्ष की ओर से हरि शंकर जैन ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बहस की। कहा कि 1993 तक सोमनाथ व्यास और उनके परिवार द्वारा मस्जिद के तहखाने में पूजा और प्रार्थनाएं होती रहीं हैं। मुलायम सिंह यादव की सरकार ने दिसंबर में इस पर पाबंदी लगा दी।
मुस्लिम पक्ष ने इस दावे का विरोध किया। कहा कि मस्जिद की इमारत पर हमेशा मुसलमानों का कब्जा रहा है। 31 जनवरी 2024 का आदेश ज्ञानवापी परिसर के धार्मिक चरित्र पर परस्पर विरोधी दावों से जुडे लंबित सिविल वाद के बीच पारित किया गया है। यह भी कहा गया कि ज्ञानवापी परिसर के धार्मिक चरित्र को दीन मोहम्मद बनाम राज्य सचिव के 1942 के फैसले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पहले ही तय कर दिया गया है।
लेकिन, कोर्ट ने कहा कि इस आदेश में हाईकोर्ट ने याचियों को केवल नमाज अदा करने का अधिकार दिया है। यह निर्णय किसी की मदद नहीं करता है। दीन मोहम्मद मामले में यह दर्ज है कि वहां व्यास परिवार पूजा कर रहा था और उसका कब्जा था। आप यह नहीं कह सकते कि ऐसा कोई दावा नहीं है। सरकार का रुख था कि तहखाना व्यास परिवार के कब्जे में था। जबकि मस्जिद पक्ष के अधिवक्ता एसएफए नकवी ने कहा कि तहखाने का प्रयोग केवल स्टोर रूम के तौर पर हो रहा था।
मंदिर पक्ष ने यह दावा दोहराया कि तहखाना में पहले भी हिंदू प्रार्थनाएं होती रही हैं। मुस्लिम पक्ष ने इस पहलू से इंकार नहीं किया है। जैन ने कहा कि एएसआई को जो सबूत भी मिले हैं, उससे मुस्लिम पक्ष का दावा गलत है। वकील विष्णु शंकर जैन ने कुछ पुराने दस्तावेजों भी कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किए कि जितेंद्र व्यास के पास तहखाना की चाभी थी और वार्षिक रूप से होने वाले रामचरित मानस का पाठ के लिए पुस्तकें तहखाने से ही निकाली और रखी जाती थी। पुस्तकों को रखने और निकालने के लिए तत्कालीन अधिकारियों के हस्ताक्षर होते थे। जैन ने इस बात से जुड़े दस्तावेज भी प्रस्तुत किए।
दूसरी ओर, वरिष्ठ अधिवक्ता नकवी ने 31 जनवरी के आदेश की सत्यता पर विवाद जारी रखा। क्योंकि यह बिना किसी नए आवेदन के पारित किया गया था। उन्होंने तर्क दिया कि जिला जज ने यह मनमाना और अवैध आदेश पारित किया, जो कि मंदिर पक्ष की ओर से मौखिक मांग के आधार पर था।
कोर्ट ने कहा कि 31 जनवरी का आदेश सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) की धारा 151 के तहत एक सिविल अदालत की अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग करके पारित किया गया है। इसे सीपीसी की धारा 152 के साथ पढ़ा जाना चाहिए। यह धारा एक जज को अनुमति देता है कि वह अपने आदेशों में त्रुटियों, चूक या चूक को ठीक कर सके।
नकवी ने कहा कि 31 जनवरी का आदेश कोई स्वतः संज्ञान कार्रवाई नहीं है। न ही कोई आवेदन है। इसलिए, यह आदेश अवैध है। उन्होंने सवाल खड़े करते हुए कहा कि मामले में यूपी सरकार पक्षकार नहीं है। फिर भी महाधिवक्ता इस सुनवाई के दौरान मौजूद हैं। अगर कोर्ट कोई भी आदेश या निर्देश देती है तो उसका पालन तो वह बिना उपस्थित हुए भी करवा सकते हैं। उन्होंने इस बात को आधार बनाते हुए यूपी सरकार, मंदिर पक्ष की इस मामले में आपसी सांठगांठ होने का आरोप लगाया। जबकि, महाधिवक्ता ने कहा कि वह केस की सुनवाई के दौरान इसलिए मौजूद हैं कि कोर्ट अगर इस मामले में कोई निर्देश देती है तो वह उसका अनुपालन कराएंगे। फिलहाल कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष को रिकॉर्ड से जुड़े दस्तावेजों को हलफनामे पर दाखिल करने का वक्त देते हुए सुनवाई के लिए 12 फरवरी की तिथि तय कर दी।