प्रयागराज, 06 फरवरी (हि.स.)। शास्त्रों के अनुसार जहां गंगा, यमुना और सरस्वती तीनों का संगम हो, वह ब्रह्मलोक और विष्णुलोक के बराबर का स्थान हो जाता है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार तीर्थराज प्रयाग में यज्ञ करने या सम्मिलित होने से मनुष्य के सारे पाप, पुण्य में परिवर्तित हो जाते हैं। ऐसे तीर्थराज प्रयाग की अद्भुत महिमा है। प्रयाग तीर्थराज कहे जाते हैं। समस्त तीर्थों के ये अधिपति हैं।
उक्त विचार श्री काशी सुमेरु पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द सरस्वती महाराज ने माघ मेला के त्रिवेणी मार्ग स्थित शिविर में चल रहे प्रवचन सत्र में व्यक्त किया। मंगलवार को उन्होंने भक्तों को सम्बोधित करते हुए बताया कि यज्ञ सम्राट सार्वभौम विश्वगुरु स्वामी करुणानन्द सरस्वती महाराज ने कहा है कि गंगा-यमुना की धारा ने पूरे प्रयाग के क्षेत्र को तीन भागों में बांट दिया है। ये तीनों भाग अग्निस्वरूप-यज्ञवेदी माने जाते हैं। इनमें गंगा-यमुना के मध्य का भाग गार्हपत्याग्नि, गंगापाकि भाग (अलर्कपुर-रैल) दक्षिणाग्नि माना जाता है। इन भागों में पवित्र होकर एक-एक रात्रि निवास करने से इन अग्नियों की उपासना का फल प्राप्त होता है।
स्वामी बृजभूषणानन्द सरस्वती ने कहा कि तीर्थराज की महिमा जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि ‘तीर्थयात्री’ कौन होता है। तीर्थ शब्द ‘तृ’ धातु से निर्मित हुआ है, जिसका अर्थ है तैरना। यात्रा शब्द की उत्पत्ति ‘या’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है कहीं गमन करना या जाना। इस प्रकार तीर्थयात्री वह है जो जीवन रूपी भवसागर को तैर कर पार कर जाता है। प्रयाग शब्द ‘प्र’ और ‘यज्’ धातु के योग से बना है। यज् धातु से निर्मित याग शब्द के कई अर्थ निकलते हैं। जैसे यज्ञ द्वारा देवता की पूजा करना, संगति करना या दान देना। ऐसा स्थान जहां कोई वृहद यज्ञ किया गया हो, वह प्रयाग है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी ने यहां यज्ञ किया था।
डॉ प्रभाकर त्रिपाठी ने कहा कि प्रयागराज को तीर्थों का राजा कई कारणों से कहा गया है। पद्म पुराण के अनुसारः ‘ग्रहाणां च यथा सूर्यो नक्षत्राणां यथा शशी। तीर्थानामुत्तमं तीर्थे प्रयागाख्यमनुत्तमम्।’ अर्थात् जैसे ग्रहों में सूर्य तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा हैं, वैसे ही तीर्थों में प्रयाग सर्वोत्तम है।